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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

दुनिया दुखों का घर है !


बात आज की है एकदम ताज़ी, पर बात पुरानी है, बहुत पुरानी और शायद उस बरगद के पेड़ से भी पुरानी, जो दक्षेश्वर महादेव के मन्दिर में खड़ा है। जाने कब से खड़ा है, यों ही यह बरगद का पेड़-वट का वृक्ष। मेरे बाबा कहते हैं कि वे बालक थे तो यह पेड़ यहीं इसी तरह खड़ा था और वे उसके नीचे दूसरे बालकों के साथ आँखमिचौनी और दोई-दुक्का खेला करते थे।

लगभग अस्सी वर्ष के हैं मेरे बाबा तो यहाँ खड़े-ही-खड़े इस बड़ के पेड़ ने एक पूरी सदी का इतिहास अपनी आँखों देखा है। कितना विशाल, कितना बूढ़ा, कितना पुराना है यह बड़ का पेड़, पर जो बात मैं आपको सुनाना चाहता हूँ, वह इतनी पुरानी है कि उसका अता-पता इस बूढ़े बड़ से पूछो तो यह बगलें झाँकने लगे और अन्त में खिसियाना-सा कहे कि भाई, जब मैं छोटा-सा बालक था, तब भी बड़े-बूढ़े यह बात आपस में यों ही कहा करते थे, जैसे आज तुम लोग कहते हो।

तो मतलब यह कि बूढ़े बड़ से भी बूढ़ी है यह बात, जो मैं आपको सना रहा हूँ। बुढ़ापे में आदमी ही नहीं हाथी धसक जाता है और उसमें खुली ताज़गी नहीं रहती, पर जो बात मैं आपको सुना रहा हूँ, वह इतनी बूढ़ी है, फिर भी ग़ज़ब की तेज़ी और ताज़गी है उसमें और ताज़गी भी क्या कोई ऐसी-वैसी, वह तितली-सी सारे देश में उडी फिरा करती है। जब मैं कहता हूँ कि उड़ी फिरती है तो आप यह न समझें कि वह कोई अप्सरा है, जो इधर से उधर उड़ी फिरे, जी नहीं वह लोक के कण्ठ का हार है।

“ओः हो, जाने क्या कहे जा रहे हैं आप। मान लिया कि जो बात हमें आप सुनानेवाले हैं, वह बहुत पुरानी है, सारे देश में उसका प्रचार है, पर भले आदमी, भूमिका, बाँधे जा रहे हो, आख़िर वह बात भी तो सुनाओ कि क्या है?"

ऊँ हूँ, तुम बोले भी तो यह बोले। बात के बीच में टपकना ही था तो कोई काम की बात कहते। वाह जी, वाह, कहा भी तो क्या कहा कि हम भूमिका बाँध रहे हैं, जैसे भूमिका बाँधना कोई मामूली बात हो। भाई साहब, भूमिका बाँधने का मतलब है, हवा बाँधना और जिसने हवा बाँध दी, उसके लिए सफलता ऐसी कि जैसे आप सड़क पर पड़ी-पायी गिन्नी चुपके से उठाकर अण्टी में लगा लें। भूमिका बाँधना, यानी हवा बाँधना ऐसा महत्त्वपूर्ण न होता तो क्या संसार के महान् शासकों और कर्णधारों की खोपडी कोई खोखली हो गयी है कि वे हवा बाँधनेवालों की जेब में बैठे फिरा करते हैं।

“संसार के शासक और कर्णधार हवा बाँधनेवालों की जेब में बैठे फिरा करते हैं, यह क्या कह रहे हैं आप?"

अजी भाई साहब, मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो तो एक और एक दो की तरह बिलकुल साफ़ है, पर तुम्हारी अक्ल का द्वार ज़रा ऐसा तंग है कि उसमें कोई बात ऐसी ही मुश्किल से बैठती है, जैसे मोटी स्त्री के हाथ में बुल्लन मियाँ की पतली चूड़ी। खैर, कुछ भी हो, मुझे तो यह चूड़ी बैठानी ही है तो मैं आपसे पूछता हूँ कि हिटलर जो सारी उम्र प्रचारमन्त्री गोयबेल्स को अपना सगा भतीजा बनाये रहा, उसका यही रहस्य था महाराज ! अच्छा तो अब तुम मेरी वह बात सुनो, जो दक्ष के मन्दिर में खड़े उस बरगद के पेड़ से भी पुरानी है और फिर भी देश के घर-घर में फैली हुई है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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